बस्तर के रीतिरिवाजों को संजो कर रखने का ठेका जब से सरकार ने उठाया है तब से परंपरागत रीति-रिवाजों की दुर्गति शुरू हो गई है। गौर से देखें तो बस्तर में पिछले कुछ वर्षों से पंरम्परागत रीति रिवाजों की योजनाबद्ध तरीके से खत्म करने का काम किया जा रहा है। मै सोचता हूँ इस लाईन पर आपको जरा आपत्ति हो सकती है मगर घटनाक्रमों पर गौर करें तो आप मुझसे कुछ हद तक सहमत होगें।
क्या हैं वे गतिविधियाँ
पहले नजर डालते हैं वे क्या गतिविधियां है जिन्हें लेकर हम गम्भीर नहीं दिखते । दरअसल, पिछले दिनों चित्रकूट महोत्सव में बहुत कुछ देखा जिनका कम-से-कम बस्तर के रीतिरिवाजों से कोई लेना देना नहीं था। ये भी सच है कि बस्तर के मेले मड़ई पर एक जमाने में बस्तर की संस्कृति की झलक देखने को मिलती थी और उन्हें निहारने दूर-दूर से लोग बस्तर आया करते थे। आज इन मेले मड़ई पर आधुनिता की मुल्लमा चढ़ा हुआ है।
ये हुआ है नुकसान
मेले मड़ई में सस्कृति को सहेजने के नाम पर कहीं डीजे बज रहें है तो कहीं आधुनिक धुनों और गानों पर लोग थिरक रहें है। इस प्रकार की गतिविधयों से बस्तर की संस्कृति नहीं सहेजी जा सकती है। जाहिर है कार्यक्रमों के प्रयोजक सरकारी ही है । यह राज्य सरकार न जाने किस रणनीति और योजना के तहत ऐसे कार्यक्रम कर के बस्तर की परम्परा और संस्कृति को सहेज कर रखेगी। इसमें हमारे स्थानीय नेता भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते दिखे जिन पर बस्तर की संस्कृति को सहेजने का जिम्मा है । उन्हें ये बात क्यों दिखाई नहीं दी ये तो सोचने वाली बात हैै।
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हद तो तब हो गई जब बस्तर के परम्परागत परिधान की फैशन परेड कराई गई जो बस्तर में हर मेले मड़ई पर सहज ही दिखाई देता था। वर्तमान में कुछ ऐसे मेले मड़ई है जिन्हें छत्तीसगढ़ शासन बाकायदा प्रायोजित करती है। और इन्हें आज महोत्सव का दर्जा मिल गया है। दरअसल एक जमाना था जब इन्हें भी मेला या मड़ई ही कहा जाता था।इन्हें आज की पीड़ी बारसूर महोत्वस, गढ़िया महोत्सव, चित्रकोट महोत्सव के नाम से जानती है।
बस्तर दशहरे को भी है नुकसान
परम्परागत रूप से मनाए जाने वाले बस्तर दशहरे की बात कहें तो इसमें भी बहुत सारी रस्मों पर आधुनिकता की छाप देखी जा सकती है । इसका परिणाम यह है कि एक लोगों में इसे मनाने के लिए स्वेच्छपूर्वक जिज्ञासा अब खत्म हो गई है । प्रतिवर्ष बस्तर दशहरे की घटती भीड़ इसका प्रमाण हैं। जाहिर है सरकारी हस्तक्षेप या दखल के बाद ही ये सब हो पाया है
आज कथित महोत्सव में परम्पराओं का प्रतिवर्ष हनन ही दिखाई देता है। और सरकार लाखों रूपए खर्च कर अपनी पीठ थपथपाती है कि हमने बस्तर की संस्कृति और परम्पराओं का सहज कर रखने के लिए ये कदम उठाया है।